
क्या भारत की आरक्षण व्यवस्था न्यायोजित हैं – अर्थात क्या यह न्याय – व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों के अनुकूल हैं ?
आरक्षण समाज में सभी को बराबरी का अवसर देने की दृष्टी से लागू किया गया था | परन्तु 70 वर्षों का अनुभव बताता है कि गरीबी ओर असमानता में तो कोई विशेष फर्क नहीं आया हैं, दूसरी ओर भ्रष्ट नेताओं को वोट बैंक की राजनीति के एक हथियार के रूप में परिवर्तित हों चुका हैं |
ऐसा देखने में आता हैं कि जाति व्यवस्था समाप्त करना तो दूर, जातियों के बीच की खाई और बढ़ रही हैं | विभिन्न राजनैतिक पार्टियाँ टिकट जाति के आधार पर बाँटती हैं, लोग वोट जाति के आधार पर देते हैं, और अधिकारियों के पदस्थापन जाति के आधार पर होते हैं |
यहाँ तक जातिवाद समाप्त करने के इस अनूठे उपाय को “सोशल जस्टिस” अथवा “सोशल इंजीनियरिंग” जैसे सम्मान सूचक नाम भी दे दिए गए है |
IIT तथा IIM जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में मात्र जाति के आधार पर प्रवेश देने से देश में योग्यता गंभीर रूप से प्रभावित हों रही हैं | इससे सामान्य वर्ग के प्रतिभाशाली छात्रों में जहाँ एक ओर कुंठा की भावना पैदा होती है, वही दूसरी ओर आरक्षित वर्ग के छात्र नैसर्गिक प्रतिभा से मुकाबला कर पाने में अपने को असक्षम पाते हैं, और परेशान होते हैं |
सत्य तो यह है कि आर्थिक तथा सामाजिक उपाय के अनेक बेहतर उपाय हैं, परन्तु नेताओं को फुर्सत कहाँ के वे इस पर विचार करें ?
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